राहु देवता के जन्म की कहानी, rahu devta ke janam ki kahani

राहु देवता के जन्म की कहानी, Rahu Devta Ke Janam Ki Kahani

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  • राहु संक्षिप्त परिचय Rahu Grah ka prabhav:

    राहु आठ श्यामवर्णी घोड़ों पर सवारी करते हैं । यदि राहु कुंडली में उच्च के हों तो जातक पर माँ दुर्गा की विशेष कृपा होती है । ऐसे जातक में उच्च कोटि के साधक होने के सारे गुण मौजूद होते हैं । उच्च का राहु जातक को बहुत बुद्धिमान बनाता है । जातक में इतना बुद्धिबल होता है की किसी भी शत्रु को अपने पक्ष में कर ले । ऐसे जातक उच्च कोटि के स्नाइपर ( बिना जद में आये दुश्मन को समाप्त करने वाले ) होते हैं । यदि ग्रहों के संयोगवशात ये किसी अनैतिक काम से पैसा कमाएं तो इन्हें कोई नहीं पकड़ पाता है ( हालांकि ऐसा करना इनके साधना पक्ष को क्षीण कर सकता है ) और यदि आपके किसी भी कर्म से किसी निर्दोष जीवात्मा को कष्ट हुआ है तो समय रहते माफ़ी मांग लीजिये अन्यथा ये जीवन व्यर्थ समझिये । कहने का आशय है की अपने विवेक का सही इस्तेमाल करें अन्यथा भुगतने के लिए तैयार रहिये ।




    यदि राहु जन्म कुंडली में उचित स्थित न हो तो बड़े से बड़े योद्धा की ज़िंदगी में भूचाल लाने की क्षमता रखता है । जिस प्रकार राहु अचानक रंक को राजा बना सकता है उसी प्रकार बड़े से बड़े राजा को रंक बनाने में भी देर नहीं करता है । अतः एक बिन मांगी सलाह देता हूँ की अपने साधना पक्ष को मजबूत करें , माँ भगवती निसंदेह आप पर कृपा करेंगी । मुश्किलों से घबराएं नहीं , उतार चढ़ाव आते रहते हैं , आप अपनी राह चलते रहें । जय माँ दुर्गा ।

    राहु देवता का जन्म Rahu Birth Story :

    श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित है की महृषि कश्यप की पत्नी दनु ने विप्रचित्ति ( पुत्र रत्न ) को जन्म दिया । विप्रचित्ति का विवाह सिंहिका से हुआ जो हिरण्यकशिपु की बहन थी । सिंहका ने स्वर्भानु को जन्म दिया जिसे राहु के नाम से जाना जाता है । क्यूंकि राहु का जन्म सिंहिका के गर्भ से हुआ , इसलिए इसे सिंहिकेय भी कहा जाता है ।

    राहु देवता की कहानी Rahu Devta ki kahani :

    श्रीमद् भागवत महापुराण में राहु देवता से जुडी कहानी की जानकारी हमें प्राप्त होती है । इसमें समुद्र मंथन का उल्लेख दिया गया है । समुद्र मंथन के लिए नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर मंदराचल पर्वत पर लपेटा गया जिनकी पूँछ देवताओं ने पकड़ी और मुख दैत्यों ने । देवराज इंद्र देवताओं का नेतृत्व कर रहे थे और बलि दैत्यों का । पूरे जोर शोर के साथ समुद्र मंथन की प्रक्रिया प्रारम्भ की गयी । कथा में कहा गया है जब देवों और दानवों ने क्षीर सागर का मंथन किया तो उसमें से बहुत से बहुमूल्य रत्न जैसे कामधेनु, कल्पवृक्ष आदि प्राप्त हुए जिन्हें देवताओं व् दैत्यों में बराबर बांटा गया । अंत में अमृत की भी प्राप्ति हुई ।



    ध्नवंतरि हाथ में अमृत का कलश लेकर प्रकट हुए । देव दैत्य सभी अमृत पाना चाहते थे । भगवान् विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और अलग अलग पंक्ति में बैठे देवों और दैत्यों को अमृत बांटना शुरू कर दिया । दैत्यों की पंक्ति में बैठे स्वर्भानु नाम के दैत्य को आभास हुआ की उन्हें चला जा रहा है सो वह चुपके से देवों की पंक्ति में जाकर बैठ गया । इस दैत्य को सूर्य व् चंद्र देव ने पहचान लिया । जैसे ही उसे अमृत दिया जाने लगा सूर्य और चंद्र ने विष्णु भगवान् को स्वर्भानु की चालाकी से अवगत करा दिया और विष्णु ने इस दैत्य का सर धड़ से अलग कर दिया । परन्तु अमृत की कुछ बूँदें उसके गले से नीचे उतर चुकी थीं , सो स्वर्भानु भी अमर हो गया । अब ब्रम्हा जी ने स्वयं स्वर्भानु के सिर को एक सर्प के शरीर से जोड़ दिया । यह राहु कहलाया और धड़ को सर्प के सिर के जोड़ दिया जिसे हम केतु के रूप में जानते हैं । क्यूंकि सूर्य और चंद्र ने राहु का काम बिगाड़ा इसलिए राहु व् केतु इनके बैरी कहे जाते हैं ।

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