चन्द्रमा देवता के जन्म की कहानी, chandrama devta ke janam ki kahani

चन्द्रमा देवता के जन्म की कहानी, Chandrama Devta Ke Janam Ki Kahani

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  • ज्योतिष में चन्द्रमा मन , माता , जल , भावुकता और सुंदरता आदि के कारक हैं । इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के अलग अलग मत हैं । पुराणों में मौजूद कहानिया भी चन्द्रमा के जन्म के सम्बन्ध में एकमत नहीं मालूम पड़ती । आज हम इन अलग अलग मतों के आधार पर चन्द्रमा की उत्पत्ति और स्वभाव को जानने का प्रयास करेंगे ।

    चन्द्रमा का जन्म Moon Birth:

    मत्स्य एवम अग्नि पुराण में वर्णित है की ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने से पूर्व मानस पुत्रों की रचना की। मानसिक संकल्प से जन्मे इन पुत्रों में से एक मानस पुत्र ऋषि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम की कन्या अनुसुइया से हुआ । फिर अनुसुइया ने दुर्वासा,दत्तात्रेय व सोम तीन पुत्रों को जन्म दिया । इनमे से सोम को ही चन्द्रमा के रूप में जाना जाता है ।




    पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने अपने पुत्र अत्रि को आज्ञा दी की वह सृष्टि का विस्तार करें । महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी की आज्ञा के पालन हेतु अनुत्तर नाम का तप आरम्भ करते हैं और तप काल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ती हैं जो बहुत प्रकाशमय थीं । तत्पश्चात सभी दिशाएं स्त्री रूप में प्रकट हुईं और पुत्र प्राप्ति की कामना से उन प्रकाशमय बूंदों को गर्भ रूप में ग्रहण कर लिया । परन्तु इन बूंदों में इतना अधिक तेज था की उस प्रकाशमान गर्भ को दिशाएं धारण न रख सकीं जिसके चलते उन्होंने इन प्रकाशमय बूंदों को त्याग दिया। इस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुए । कहते हैं की देवताओं,ऋषियों व गन्धर्वों आदि ने उनकी स्तुति की। ब्रह्मा जी ने चन्द्र को नक्षत्र,वनस्पतियों,ब्राह्मण व तप का स्वामी नियुक्त किया। चन्द्रमा के ही तेज से पृथ्वी पर दिव्य औषधियों की उत्पत्ति कही गयी है ।

    स्कन्द पुराण में वर्णित है की क्षीर सागर के मंथन के समय उस में से चौदह रत्न प्राप्त हुए । उन्हीं चौदह रत्नों में से एक हैं चंद्रमा जिसे भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। परन्तु एक ग्रह के रूप में चन्द्र की उपस्थिति मंथन से पूर्व भी रही है इस तथ्य से सम्बंधित प्रमाण स्कन्द पुराण में ही मौजूद हैं ।

    स्कन्द पुराण के ही माहेश्वर खंड में गर्गाचार्य ने समुद्र मंथन का मुहूर्त निकालते हुए देवों को कहा कि यह गोमन्त मुहूर्त तुम्हें विजय देने वाला है । चंद्रमा से गुरु का शुभ योग है। इस समय सही गृह अनुकूल हैं । अतः उत्तम चंद्र बल के चलते तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा । ज्योतिष के जानकारों ने ऐसी संभावना जताई है कि चंद्रमा के विभिन्न अंशों का जन्म विभिन्न कालों में हुआ माना जा सकता है । चन्द्र का विवाह दक्ष प्रजापति की नक्षत्र रुपी 27 कन्याओं से हुआ जिनके भोग से एक चन्द्र मास पूर्ण होता है । इन कन्याओं से चंद्र देव के अनेक प्रतिभासम्पन्न पुत्र हुए।



    शिव चन्द्रमा के अधिष्ठात्री देव :

    भगवान् शिव ने ही चन्द्रमा को अपने सर पर धारण किया है । अतः भोलेनाथ को ही चन्द्रमा का अधिष्ठात्री देव कहा गया है । चंद्र देव का गोत्र अत्रि तथा दिशा वायव और दिन सोमवार माना गया है । सोलह कलाओं से युक्त चंद्र देव को सर्वमय कहा जाता है औरज्योतिष में इनकी महादशा दस वर्ष की होती है ।

    चंद्र रत्न :

    चंद्र जैसी आभा लिए मोती को चंद्र रत्न के रूप में स्वीकार किया गया है । कारक चंद्र के कमजोर होने की स्थिति में इसे चांदी की अंगूठी में सबसे छोटी ऊँगली में धारण किया जाता है । मोती को दूध गंगाजल से अच्छी तरह धोकर चढ़ते पक्ष में सोमवार के दिन सायं काल में धारण करना उचित रहता है ।

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